World Environment Day Special: आपदाओं से घिरी धरती छोड़कर मंगल, शुक्र पर जीवन क्यों खोज रहे हैं दुनियाभर के वैज्ञानिक?
मंगल ग्रह पर अमेरिका और चीन के रोवर जीवन की तलाश कर रहे हैं। ISRO का बनाया भारत का मंगलयान भी मंगल की कक्षा के चक्कर काट रहा है। ISRO वीनस पर एक शुक्रयान भी भेजने के बारे में सोच रहा है। लेकिन क्यों? भारत क्या, हर देश के सामने अपनी-अपनी परेशानियां हैं। कहीं हिंसा ज्यादा है, कहीं गरीबी। और इस वक्त तो दुनिया का कोई कोना कोरोना से अनछुआ नहीं रह गया है। ऐसे में इतने संसाधन, बजट, टेक्नॉलजी और ह्यूमन रिसोर्स धरती पर फोकस करने की जगह दूसरे ग्रहों पर जीवन ढूंढने का क्या फायदा है? विश्व पर्यावरण दिवस पर नवभारत टाइम्स ऑनलाइन ने इन सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश की है।
कभी मंगल सी बर्फीली थी धरती
15 साल से प्रदूषण से जुड़े मुद्दों पर रिसर्च कर रहे सऊदी अरब की किंग अब्दुल्ला यूनवर्सिटी ऑफ साइंस ऐंड टेक्नॉलजी में साइंटिस्ट डॉ. राम करण शर्मा बताते हैं कि हमारी धरती आज जैसी है, हमेशा से वैसी नहीं थी। ऐसा भी एक वक्त था जब यहां जीवन का नामोनिशान नहीं था। हम जब मंगल या शुक्र जैसे अपने साथियों को देखते हैं तो उन्हें हम अपने भी अतीत और भविष्य दोनों का आइना समझ सकते हैं। 4.6 अरब साल पीछे जाएं तो सभी का एक सा इतिहास दिखेगा। सभी एक ही गैस और धूल के गुबार से जन्मे थे और एक ही सूरज के चक्कर काटने लगे। अंतर यहां पैदा हुआ कि जलवायु त्रासदियों के बाद सिर्फ धरती के पास पानी रह गया और बाकी सभी वीरान रह गए। शुक्र उबलने लगा और मंगल जमने लगा।
एक वक्त था जब हिमयुग में धरती भी शायद मंगल की तरह बर्फीली थी और अगर हम समय से नहीं सुधरे तो क्या पता कभी ग्रीनहाउस गैसें हमें शुक्र की तरह तपाने लगें। इस तरह दूसरे ग्रहों के हालात, उनके इतिहास, उनके वायुमंडल, जमीन के नीचे उनकी केमिस्ट्री के बारे में जानकर हम अपने खुद के वायुमंडल, पर्यावरण और जलवायु के भविष्य को समझ सकते हैं। आखिरकार फिजिक्स के एक जैसे सिद्धांत इन सभी ग्रहों को चलाते हैं। इन ग्रहों से मिला डेटा हमें बताया है कि जलवायु का कायम रहना किसी भी तरह से हल्के में नहीं लिया जा सकता है। क्या पता हमें भी अंतरिक्ष में घूम रहे किसी अनदेखे खतरे का सामना करना पड़े।
ताकि उन जैसा ना हो हाल
ब्रह्मांड, या कम से कम अपने सौर मंडल, के दूसरे ग्रहों को स्टडी करना ऐसा है जैसे इतिहास के पन्ने पलटने या आने वाले कल में झांकना। इससे हमें यह समझने का मौका मिलता है कि धरती के सामने अपना अस्तित्व बचाने के लिए क्या चुनौतियां हो सकती हैं और कैसे उनका सामना किया जा सकता है।
बावजूद इसके अगर धरती को जीवन के लिए विनाशकारी त्रासदी या प्रकिया से बचाया नहीं जा सके तो हम क्या करेंगे? क्या अब तक के विकास और सभ्यताओं के साथ जीवन खत्म हो जाएगा? दिल्ली यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रफेसर और एन्वायरनमेंटल साइंटिस्ट डॉ. गौरव कुमार का कहना है कि हमें सबकुछ धरती के ईकोसिस्टम से मिलता है। कई वैज्ञानिक और रिसर्चर ये मानते हैं कि अमेरिकी स्टैंडर्ड से देखा जाए तो धरती आज सिर्फ आबादी के पांचवें हिस्से का ही बोझ उठाने में सक्षम है। इसलिए धरती पर जीवन को बचाने के लिए पहले ईकोसिस्टम को बचाना सबसे ज्यादा जरूरी है।
फिजूल का खर्च नहीं, भविष्य में निवेश
अगर बढ़ती आबादी को बांटा जा सके तो धरती का भार कम होगा और इसलिए दूसरे ग्रहों पर जीवन की संभावना तलाशना एक लॉन्ग-टर्म जरूरत हो सकता है। डॉ. राम करण भी इस बारे में चेतावनी देते हैं कि दूसरे ग्रहों पर जीवन की तलाश के साथ-साथ हमें तेजी से न सिर्फ खतरे में पड़ती मौजूदा जैव-विविधता को बचाना होगा बल्कि अपनी मानसिकता को भी बदलना होगा जिसकी वजह से आज हम इस संकट के दौर से गुजर रहे हैं। खाद्य-श्रृंखला में बदलाव आने से ईकोसिस्टम का बैलेंस तेजी से बिगड़ता है और इंसान इसे गंभीरता से नहीं लेता। ऐसे में दूसरे विकल्प तलाशना जरूरी हो जाता है। यही नहीं, ऐस्टरॉइड गिरने जैसी विनाशकारी घटना से बचने के लिए भी हमें स्पेस पर नजर रखनी ही होती है ताकि आने वाले खतरे से हम आगाह हो सकें।
डॉ. राम करण का कहना है कि आज भले ही हमें स्पेस एक्सप्लोरेशन बेफिजूल का खर्च लगता हो, सबसे बड़ी समस्याओं का समाधान बाद के समय में मिलने वाले नतीजों को ध्यान में रखकर ही किया जा सकता है। समाज की बेहतरी मेहनत, रिसर्च, डिवेलपमेंट से होती है और उसका फल सालों, दशकों और पीढ़ियों बाद समझ में आता है। डॉ. गौरव मानते हैं कि दूसरे ग्रहों पर जीवन की तलाश जरूरी है लेकिन यह किसी देश की अर्थव्यवस्था और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर निर्भर करता है कि वह इसमें कितना निवेश करता है। यकीनन, जीवन की खोज के साथ-साथ अभी जो जीवन है उसे संभालकर रखना बेहद जरूरी है।
स्पेस के साथ पर्यावरण पर हो ध्यान
डॉ. राम करण के मुताबिक भारत के पास ऐसी बुद्धिमत्ता है जो दुनिया के कई स्पेस मिशन्स में अहम भूमिका निभा चुकी है। भारत ने खुद में स्पेस, रक्षा, ऐरोनॉटिक्स और सैटलाइट्स के क्षेत्र में कई मील के पत्थर खड़े किए हैं। भारत का इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन ISRO दुनिया की 6 टॉप सरकारी स्पेस एजेंसीज में से एक है जिसने 50 साल में कई रेकॉर्ड कायम किए हैं। साल 2020-21 के बजट में भारत सरकार ने डिपार्टमेंट ऑफ स्पेस को 13, 949 करोड़ रुपये दिए हैं। आखिर सैटलाइट व्यवस्था पर कृषि से लेकर संचार, मिलिट्री से लेकर बैंकिंग तक हर जरूरत निर्भर करती है।
दूसरी तरफ पर्यावरण मंत्रालय को 2020-21 में 3,100 करोड़ रुपये दिए गए। इसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य, सैनिटेशन, कृषि, जानवरों, पानी और जमीन की बीमारियां रोकने जैसी कई भूमिकाएं शामिल हैं। डॉ. राम करण का कहना है कि पर्यावरण के लिए दिया गया बजट काफी कम है। भविष्य के ऐक्शन के लिए फ्रेमवर्क बनाने और पर्यावरण संरक्षण, मॉनिटरिंग और रिसर्च इंस्टिट्यूट्स को ज्यादा फंडिंग देने की जरूरत है। उनका कहना है कि रिसर्च के साथ-साथ साइंटिफिक और टेक्निकल इनोवेशन पर्यावरण को बचाने और ग्लोबल वॉर्मिंग को कम करने के लिए अहम है। इसके जरिए जलवायु परिवर्तन का सामना करने से लेकर प्रदूषण मिटाने और अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखने में मदद मिलेगी।